वक़्फ़: अमानत का सौदा, ज़मीर का सवाल…जौवाद हसन- (स्वतंत्र पत्रकार)
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वक़्फ़ की तामीर में न कोई ज़ात होती है, न कोई सियासत—सिर्फ़ नीयत होती है। और जब नीयत बेनक़ाब होती है, तो सवाल उठते हैं। आज वक़्फ़ के सवाल पर संसद में बहस नहीं, फ़ैसला हो चुका है। मगर यह फ़ैसला कितना न्यायोचित है, और इससे बड़ा सवाल—यह फ़ैसला ज़रूरत क्यों बना?
वक़्फ़, अल्लाह के नाम पर छोड़ी गई ज़मीनों और जायदादों का वो निज़ाम है, जिसका वजूद एक समाज की ज़िम्मेदारी से जुड़ा है। यह ज़मीनें मस्जिदों, मदरसों, यतीमख़ानों और अस्पतालों के लिए थीं। मगर हक़ीक़त यह है कि इन पर मॉल बन गए, निजी दफ़्तर खुल गए, और इबादत की ज़मीनें मुनाफ़े की मंडी में बदल गईं।
वक़्फ़ संशोधन बिल अब कानून बन चुका है। सरकार कहती है कि यह क़दम “पारदर्शिता” के लिए है। लेकिन सवाल यह है कि इस पारदर्शिता की पहली ज़रूरत उस वक़्फ़ बोर्ड में क्यों नहीं महसूस की गई, जिसकी फ़ाइलों में सड़ांध और भ्रष्टाचार की परतें जमी हुई थीं?
सरकार से सवाल वाजिब है, लेकिन उससे पहले यह सवाल मुसलमानों से भी है:
अगर वक़्फ़ की हिफ़ाज़त की होती, अगर यतीमों और बेवाओं का हक़ उन तक पहुंचाया होता, अगर तालीम को वक़्फ़ की पहली तरजीह बनाया होता—तो क्या आज हुकूमत को हस्तक्षेप का मौक़ा मिलता?
वक़्फ़ की यह तबाही अचानक नहीं हुई। यह ग़फ़लत के सालों का नतीजा है। मुसलमान समाज की ख़ामोशी, बोर्ड की लापरवाही, और रसूख़ वालों की मिलीभगत-इस त्रिकोण ने वक़्फ़ को उस मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां अब फ़ैसले हमारे हाथ में नहीं रहे।
मगर इसका यह मतलब नहीं कि हम अपनी आवाज़ खो चुके हैं।
जनाब-ए-वज़ीर-ए-आज़म,
कानून बनाना आपकी ताक़त है, लेकिन विश्वास पाना आपकी ज़िम्मेदारी।
आपने बिल पास करवा दिया, मगर जवाब अभी बाक़ी हैं
क्या आपने पहले वक़्फ़ की लूट को रोका?
क्या वक़्फ़ बोर्ड की आंतरिक सफ़ाई की?
क्या आप जानते हैं कि इस अमानत में सिर्फ़ ज़मीन नहीं, लोगों की दुआएं और आंखों के आंसू शामिल हैं?
अगर सरकार वक़्फ़ की बर्बादी रोकने में संजीदा है, तो उसे सबसे पहले उस ऐतबार को बहाल करना होगा जो इस वक़्फ़ के साथ जुड़ा है। और अगर मुसलमान वाक़ई इस अमानत को बचाना चाहते हैं, तो उन्हें सियासी नारों से आगे निकलकर तालीमी, माली और समाजी तामीर पर ध्यान देना होगा।
वक़्फ़ पर सबसे बड़ा हमला बाहर से नहीं, अंदर से हुआ है।
अब ज़िम्मेदारी हमारी है-कि हम वक़्फ़ की उस रूह को ज़िंदा करें जो बेवा की मुस्कान, यतीम की किताब और ग़रीब के सपनों में ज़िंदा रहती है। हमें सिर्फ़ हुकूमत से सवाल नहीं करने, अपने आप से भी जवाब लेने हैं।
वक़्फ़ सिर्फ़ वक़्फ़ नहीं है-यह उस भरोसे की आख़िरी कड़ी है जो इस क़ौम को अब भी जोड़ती है। अगर यह भी टूट गई, तो बस दीवारें बचेंगी-मक़सद नहीं।
अब भी वक़्त है…
मज़हबी तंज़ीमों को, मुस्लिम इदारों को, और हर उस शख़्स को जो इस अमानत में हिस्सेदार है-तामीर के लिए आगे आना होगा।
मस्जिदों के साथ स्कूल हों, इमामों के साथ इल्म हो, और दुआओं के साथ दस्तक़ भी-तब जाकर वक़्फ़ वाक़ई ‘अल्लाह की अमानत’ कहलाएगा।
“वक़्फ़ को बचाना अब जंग नहीं, एक ज़रूरी इबादत है। और इस इबादत का पहला रुक्न है: जवाबदेही।”